Tuesday, March 25, 2008

आओ-आओ...अगवानी !

एक तो नेता वगैरा आत्मकथा जैसी चीजें लिखते नहीं हैं, फिर ऐसी कोई किताब लिखी भी जाती है तो उसमें उस निर्मम तटस्थता का अभाव होता है जो उन्हें सर्वग्राह्य और सर्वकालिक उपयोगी होने से वंचित करती है. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का आत्मकथा "माई कंट्री, माई लाइफ" भी हमें बहुत कुछ नया नहीं बताती. एक ऐसी पुस्तक से आप वैसे भी बड़ी उम्मीद नहीं बांध सकते जिसके लिखने के उद्देश्य ही बड़े और व्यापक न हों. यह आत्मकथा दरअसल आडवाणी का चतुराई भरा राजनीतिक पैंतरा है.

चार जून, 2005 को भारतीय जनता पर्टी के केंद्रीय कार्यालय में पाकिस्तान से एक फैक्स आया. पार्टी का कोई वरिष्ठ पदाधिकारी कार्यालय में नहीं था. फैक्स पढ़ने वाले ने राष्ट्रीय महामंत्री प्रमोद महाजन को गुवाहाजी फोन किया. महाजन ने कहा, पढ़कर सुनाओ. सुनने के बाद महाजन ने कहा कि यह प्रेस में नहीं जाना चाहिए, साथ ही कहा कि दूसरे पदाधिकारियों से भी बात कर लो.


वेंकैया नायडू, संजय जोशी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और बाल आप्टे को फैक्स का मजमून पढ़कर सुनाया गया. सबकी राय एक ही थी. यह जिन्ना की मजार पर आडवाणी के भाषण का फैक्स था. वेंकैया नायडू, अरुण जेटली, संजय जोशी और बाल आप्टे संघ कार्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह मोहन भागवत से मिले. सबको बता दिया गया कि ये संघ को मंजूर नहीं और आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने की मुहिम शुरू हो गई.


छह जून को आडवाणी दिल्ली पहुंचे तो हिंदू जागरण मंच ने हवाई अड्डे पर नारा लगाया- जिन्ना समर्थक, पाकिस्तान प्रेमी आडवाणी वापस जाओ. पार्टी के वरिष्ठ नेता हवाई अड्डे पर ही आडवाणी से मिले और कहा कि पार्टी में इस मुद्दे पर चर्चा के बाद ही वे मीडिया से बात करें. आडवाणी नहीं माने. सात जून को आडवाणी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.


उसी दिन शाम को पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक अध्यक्ष के बिना हुई और इसमें एक प्रस्ताव पास करके आडवाणी के योगदान की सराहना करते हुए उनसे इस्तीफा वापस लेने की मांग की गई. ऐसा न लगे कि उन्हें हटाया जा रहा है इसलिए बैठक के बाद लगभग सारे पदाधिकारी आडवाणी के घर गए यह कहने कि वे अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार करें. सबकी उम्मीद के विपरीत आडवाणी ने कहा कि वे सोचकर बताएंगे.


नौ जून की दोपहर आडवाणी तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के यहां भोजन पर गए. पूरा किस्सा सुनाया. दोनों बात करके रोए. उसके बाद शेखावत ने कहा कि इस्तीफा मत दीजिए. आप क्या समझ रहे हैं कि ये लोग आपको पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर चुप हो जाएंगे. इस्तीफा दिया तो आपको और भी अपमान सहना पड़ेगा.


आडवाणी घर लौटे और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और पूछा कि क्या वे अभी आ सकते हैं. मोदी भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के साथ दक्षिण दिल्ली के एक रेस्तरां में खाना खाने जा रहे थे. रास्ते से ही मुड़कर आडवाणी के घर पहुंचे. दोनों में लंबी बात हुई और मोदी आडवाणी बचाओ अभियान में जुट गए.


सवाल था समय का. इसलिए कहा गया कि जसवंत सिंह के इजरायल से लौटने के बाद आडवाणी के इस्तीफे पर फैसला होगा. जसवंत सिंह को लाने के लिए रिलायंस का जहाज भेजा गया. उन्होंने लौटने में तीन दिन लगाए. तब तक मोदी आग को काफी हद तक बुझा चुके थे. सहमति बनी कि आडवाणी को अध्यक्ष पद छोडना ही है पर थोड़ा रुककर.


उम्मीद थी कि आडवाणी अपनी पुस्तक "माई कंट्री, माई लाइफ" में इस घटना का विस्तार से ब्यौरा देंगे. या कम से कम इस बात का कि उनके पार्टी सहयोगी और पूरा संघ परिवार उनके खिलाफ क्यों हो गया. उन्होंने पुस्तक में लिखा है कि जिन्ना वाली टिप्पणी का उन्हें अफसोस नहीं है पर जीवन के छह दशक जिस संगठन में बिताए, उसमें अचानक खलनायक बन जाने का भी क्या उन्हें कोई अफसोस नहीं है?


नेताओं की आत्मकथा में लोग अक्सर उनके समय की बड़ी घटनाओं के पर्दे के पीछे की कहानी खोजते हैं. आडवाणी की किताब में ऐसे प्रसंगों का जिक्र तो है लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है जो लोग पहले से न जानते हों. इन घटनाओं पर उनकी राय ऐसी ही मामलों में आई है जो आडवाणी को किसी न किसी आरोप से बरी करती हो.


कांधार प्रकरण के समय वे देश के गृहमंत्री थे. क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक क्यों देर से हुई, क्यों इंडियन एयरलाइंस के उस विमान को अमृतसर में नहीं रोका जा सका और आतंकवादियों को भेजने का फैसला किसका था? उन्होंने इस पूरे प्रकरण में नई बात यह बताई कि जसवंत सिंह के आतंकवादियों को लेकर जाने की उन्हें जानकारी नहीं थी.


2004 के लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने का फैसला किसका था? भाजपा में आम धारणा है कि यह फैसला मूलतः आडवाणी का था. उनकी किताब में यह बात तो है कि अटल बिहारी वाजपेयी समय से पहले चुनाव के सुझाव पर उत्साहित नहीं थे और आडवाणी खुद इसके पक्ष में थे. आखिर इंडिया शाइनिंग का नारा उन्हीं का था.


आडवाणी ने इस मुद्दे पर बड़ी चतुराई से चंद्रबाबू नायडू पर दोष डाल दिया है. उन्होंने लिखा है कि 1999 का विधानसभा और लोकसभा चुनाव चंद्रबाबू नायडू, वाजपेयी और राजग की लोकप्रियता बूते जीते. वे चाहते थे कि विधानसभा चुनाव जल्दी हों और लोकसभा चुनाव साथ हों तो उन्हें फायदा मिलेगा. आडवाणी के मुताबिक इतने महत्वपूर्ण सहयोगी दल की बात को टाला भी तो नहीं जा सकता था.


इसी तरह पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा में हुई शिखर वार्ता से संबंधित अध्याय को ध्यान से पढ़ें तो आडवाणी कहते हुए नजर आएंगे कि उन्होंने रोका न होता तो शिखर वार्ता के बाद आतंकवाद और घुसपैठ का जिक्र किए बिना ही साझा बयान जारी हो गया होता. आगरा शिखर वार्ता नाकाम होने के बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश विपक्ष की ओर से नहीं, भाजपा की ओर से ही हुई. उस समय आडवाणी के संघ से अच्छे संबंध थे. प्रो. राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया सरसंघचालक का कार्यभार केएस सुदर्शन को सौंप चुके थे.


पुस्तक में जिक्र है कि रज्जू भैया एक दिन सुबह नाश्ते पर आडवाणी के यहां आए और बताया कि वे वाजपेयी से मिले थे और उन्हें राष्ट्रपति बनने का सुझाव दिया. आडवाणी के मुताबिक उन्होंने रज्जू भैया से पूछा कि वाजपेयी की क्या प्रतिक्रिया थी. रज्जू भैया ने कहा कि वे सुनते रहे, कोई जवाब नहीं दिया.


ये किस्सा सही तो है पर अधूरा. रज्जू भैया वाजपेयी से मिले थे और कहा था कि उन्हें खराब स्वास्थ्य के चलते सुदर्शन को संघ का कार्यभार दिया है. आप भी आडवाणी जी को दायित्व सौंपकर राष्ट्रपति बन जाइए. पुस्तक में इस बात का भी जिक्र नहीं है कि इसके कुछ ही दिन बाद आडवाणी के विश्वस्त वेंकैया नायडू यह प्रस्ताव लेकर वाजपेयी के पास गए कि आप राष्ट्रपति बन जाइए. वाजपेयी ने रज्जू भैया को तो कोई जवाब नहीं दिया था पर कुछ दिन बाद वेंकैया को अपने सरकारी आवास पर आयोजित कार्यक्रम में यह कहकर जवाब दिया कि "न टायर, न रिटायर". आडवाणी जी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में विजय की ओर प्रस्थान करे. उनके इस बयान को आडवाणी और उनके समर्थक समझ गए और उसके बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिशों को विराम लग गया.


दरअसल, आडवाणी और वाजपेयी भारतीय राजनीति की दो ऐसी समानांतर चलने वाली धाराएं हैं जिनके साथ-साथ चलने से एक होने का बोध तो होता है पर वे कभी एक होती नहीं. वाजपेयी पर लिखे अध्याय में आडवाणी इस बात का जिक्र करना नहीं भूले कि 1995 में मुंबई अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के नाते जब उन्होंने वाजपेयी को भावी प्रधानमंत्री घोषित किया, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पार्टी के ज्यादातर लोग मानते थे कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं.


आत्मकथा लिखने के कई मकसद होते हैं. आडवाणी की आत्मकथा कम से कम मकसद के मामले में इन सबसे अलग है. इसके मुख्य रूप से दो ही मकसद हैं. लालकृष्ण आडवाणी को अटल बिहारी वाजपेयी की छाया से निकालकर भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सर्वमान्य और एकमात्र नेता के रूप में पेश करना.


इस पुस्तक का दूसरा मकसद आडवाणी को ऐसे नेता के रूप में पेश करना है जो हमेशा से उदार और धर्मनिरपेक्ष पर दूसरों की बनाई कट्टरपंथी छवि से लड़ता रहा. आडवाणी ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि चीनी लिपि में क्राइसिस (संकट) को दो शब्दों के युग्म के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. एक का मतलब है खतरा और दूसरे का अवसर.


ऐसा लगता है कि आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में दोनों का रणनीतिक इस्तेमाल किया है. जो बातें खतरा बन सकती थी, उन्हें छोड़ दिया है. जो अवसर के रूप में उपलब्ध हैं, उनका विस्तार से जिक्र किया. तो हे सुधी जनों, तैयार हो जाइए एक उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सर्वमान्य नेता की अगवानी के लिए.

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