Monday, May 19, 2008

माया दिल्ली हाथी पर, रखना पत्थर छाती पर...

हैरत है कि मायावती की सरकार का एक साल पूरा हुआ और मीडिया में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई. वैसे भी मायावती एकमात्र राजनेता हैं जो ऐसी चर्चाओं की कतई परवाह नहीं करती. पर इससे सवाल यही उठता है कि क्या देश का तथाकथित बौद्धिक समाज एक दलित की बेटी के राजनीतिक वर्चस्व को पचा नहीं पा रहा है. जो भी हो, मायावती निश्चिंत हैं. उत्तर प्रदेश में उन्हें कोई भय नहीं. उनकी नजर में देश और केंद्र की सत्ता है. उनके दिमाग में नक्शा और रणनीति साफ है. मुगालते में कांग्रेस है जो 'दलित के घर में राहुल' की टीवी छवि पर मुग्ध है और नहीं समझ रही है कि देश में उन लोगों की तादाद कितनी ज्यादा है जिन्हें मायावती ने आत्मगौरव और नेतृत्व दिया है और जिनकी एकमात्र नेता भी बहिनजी ही हैं.


मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर एक साल पूरे कर लिए. ऐसे समय में जब सरकारों के सौ दिन मनाने का चलन हो, एक साल भी खामोशी से गुजर जाए तो कुछ अजीब सा लगता है. सरकार की पहली सालगिरह कब आई और कब चली गई, किसी को पता नहीं चला.

मायावती देश की अकेली नेता हैं और बहुजन समाज पार्टी देश की अकेली ऐसी पार्टी है जिसका कोई अपना बौद्धिक तंत्र नहीं है. मायावती अभी तक किसी बौद्धिक तंत्र के बिना ही उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अकेले सत्ता में पहुंची हैं इसलिए उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं लगती.

मायावती को भले ही किसी बौद्धिक तंत्र की जरूरत न हो पर देश के बौद्धिक तंत्र के लिए भी क्या मायावती और बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व नहीं है. वरना क्या कारण है कि मायावती के एक साल पूरे के शासन पर किसी ने टिप्पणी करने की जरूरत भी नहीं समझी.

इस मुद्दे पर विस्तार से तो शायद कोई समाजशास्त्री ही बता पाए. पर देश के बौद्धिक वर्ग के पिछले कुछ दशकों के व्यवहार पर नजर डालें तो दो बातें जेहन में आती हैं. एक मायावती और कांशीराम के शब्दों में देश का मीडिया और बुद्धिजीवी मनुवादी है. क्या एक दलित की बेटी का देश के सबसे बड़े राज्य में सत्तारूढ़ होना प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार नहीं कर पाया है.

क्या मायावती का मुख्यमंत्री बनना और एक साल बिना किसी बड़े विवाद या संकट के पूरा करना राहुल गांधी के एक दलित के घर में खाना खाने से भी कम महत्वपूर्ण घटना है. देश के बौद्धिक वर्ग के व्यवहार से तो ऐसा ही लगता है.

दूसरे कारण को उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत की राजनीतिक संस्कृति तक ही सीमित रखना शायद ज्यादा बेहतर होगा. पिछले कुछ दशकों में राजनीति ने बौद्धिक वर्ग को ज्यादा सत्तापेक्षी बना दिया है. सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं से निजी और दूसरे संबंधों के आधार पर समर्थन और विरोध की मात्रा तय होती है. मायावती की पार्टी का एक नारा हुआ करता था, पत्थर रख लो छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर. ऐसा लगता है कि बौद्धिक वर्ग ने छाती पर पत्थर रखकर ही मायावती को स्वीकार किया है.

बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ होना इतना सहज और स्वाभाविक ढंग से नहीं हुआ कि जिनके हाथ से सत्ता गई उन्हें अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है. राजनीतिशास्त्र में इसे ग्रैजुअलिज्म (सुधारवाद) कहते हैं. यह क्रांति का लगभग उलटा होता है. यह आम तौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव होता है. लोकतंत्र में परस्पर प्रतियोगी राजनीति सामान्य और धीमी गति की प्रक्रिया के जरिए आवश्यक सामाजिक बदलाव लाती है.

बहुजन समाज पार्टी का विकास और दलित वर्ग का राजनीतिक जागरण इसी प्रक्रिया से हुआ है. करीब दो दशकों में बहुजन समाज पार्टी ने इतनी लंबी दूरी तय की है. 1984 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में कुल 2.60 फीसदी वोट मिले, 2004 के लोकसभा चुनाव में 24.67 फीसदी और 2007 में उत्तर प्रदेश में अकेले दम पर बहुमत.

बहुजन समाज पार्टी के विकास को केवल जातीय गणना के आधार पर देखना सही नहीं होगा. उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी करीब इक्कीस फीसदी है. किसी और जातीय समूह की इतनी बड़ी संख्या नहीं है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक डा. दीपांकर गुप्ता ने उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में जातियों की जनसंख्या और उसके चुनावी असर का अध्ययन किया है. उन्होंने अपनी किताब 'इंटेरोगेटिंग कास्ट' में लिखा है कि जातियों की संख्या के आधार पर चुनाव में जीत-हार तय नहीं होती.

अध्ययन के लिए उन्होंने 1991, 1996 और 1998 के लोकसभा चुनावों के आंकड़े लिए हैं. उत्तर प्रदेश के मामले में उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, मेरठ, आगरा और सहारनपुर का उदाहरण दिया है. इन जिलों को जाट प्रभुत्व वाला इलाका माना जाता है. पर इनमें जाटों की आबादी कुल आबादी का दस फीसदी से ज्यादा नहीं है. जबकि इन जिलों में दलित आबादी 25 से 30 फीसदी है. फिर भी इन्हें दलित प्रभुत्व वाला नहीं माना जाता.

दीपांकर गुप्ता का कहना है कि चुनाव जीतने के लिए अपनी जाति की संख्या से अधिक जातियों की केमिस्ट्री प्रभावी होती है. संख्या में ज्यादा होने पर भी दलित इसलिए प्रभावी नहीं थे क्योंकि उनकी संगठन क्षमता और उसके लिए आवश्यक संसाधन नहीं था.

मायावती ने दलितों को ये दोनों चीजें मुहैया कराई हैं. जातियों का समीकरण अब भी वही है. फर्क यह हुआ है कि राजनीतिक रूप से जागरूक दलित अब अपने से संख्या में कम जातियों का नेतृत्व स्वीकार करने की बजाय उनका नेतृत्व कर रहा है.

गांवों में रोजगार के घटते अवसरों ने देश की अर्थव्यवस्था पर जो भी असर डाला हो दलितों के राजनीतिक सशक्तीकरण में उसकी अहम भूमिका रही है. गांवों में प्रति व्यक्ति खेती के घटते रकबे ने दलितों की खेतिहर जातियों पर रोजगार के लिए निर्भरता घटी दी है. अब वे अपनी राजनीतिक दिशा तय करने के लिए स्वतंत्र हैं. मायावती ने उन्हें नेतृत्व और आत्मविश्वास दोनों दिया है.

दलित समाज में आए इतने बड़े बदलाव से देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस बेखबर है. ऐसा न होता तो वह उत्तर प्रदेश में अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश में राहुल गांधी को दलित बस्ती में खाना खाने और रात बिताने की रणनीति नहीं अपनाती.

मायावती के राज में दलित अब किसी राजा या युवराज के उसकी कुटिया में आने भर से धन्य होने को तैयार नहीं है. वह क्षणिक आवेग में आ जाए तो भी उससे अभिभूत होकर वोट देने को तैयार नहीं है. वह राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही नहीं, अब नेतृत्व भी चाहता है. मायावती उत्तर प्रदेश तक अपने को सीमित नहीं रखना चाहतीं. वे खुद और उनके मंत्री देश भर का दौरा कर रहे हैं.

पहले विधानसभा चुनाव में भारी जीत और उसके बाद उपचुनावों में विपक्ष के सफाए से वे उत्तर प्रदेश से निश्चिंत हैं. मीडिया, बुद्धिजीवियों और अकादमिक लोगों की आलोचना और उपेक्षा से बेपरवाह. कांग्रेस को शायद अंदाजा ही नहीं है कि वह उसका कितना बड़ा नुकसान करने की तैयारी कर रही है. देश भर में लोकसभा की आधी से ज्यादा सीटों पर बसपा कांग्रेस के आठ से दस फीसदी वोट काटने की तैयारी में है.

मायावती भले ही उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठी हों, उनकी नजर दिल्ली की कुर्सी पर है. उत्तर प्रदेश में निश्चिंत और निर्द्वंद्व एक साल का शासन उनका और उनके समर्थकों का आत्मविश्वास बढ़ाएगा.

1 comment:

Vidhan Chandra said...

sab kuch thik hai bhaya lekin bahan ji ne brahmno ka saath to liya hai.dekhate aage kya hota hai."dilli" abhi ddor hai bahan ji ke liye.