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Monday, May 19, 2008

माया दिल्ली हाथी पर, रखना पत्थर छाती पर...

हैरत है कि मायावती की सरकार का एक साल पूरा हुआ और मीडिया में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई. वैसे भी मायावती एकमात्र राजनेता हैं जो ऐसी चर्चाओं की कतई परवाह नहीं करती. पर इससे सवाल यही उठता है कि क्या देश का तथाकथित बौद्धिक समाज एक दलित की बेटी के राजनीतिक वर्चस्व को पचा नहीं पा रहा है. जो भी हो, मायावती निश्चिंत हैं. उत्तर प्रदेश में उन्हें कोई भय नहीं. उनकी नजर में देश और केंद्र की सत्ता है. उनके दिमाग में नक्शा और रणनीति साफ है. मुगालते में कांग्रेस है जो 'दलित के घर में राहुल' की टीवी छवि पर मुग्ध है और नहीं समझ रही है कि देश में उन लोगों की तादाद कितनी ज्यादा है जिन्हें मायावती ने आत्मगौरव और नेतृत्व दिया है और जिनकी एकमात्र नेता भी बहिनजी ही हैं.


मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर एक साल पूरे कर लिए. ऐसे समय में जब सरकारों के सौ दिन मनाने का चलन हो, एक साल भी खामोशी से गुजर जाए तो कुछ अजीब सा लगता है. सरकार की पहली सालगिरह कब आई और कब चली गई, किसी को पता नहीं चला.

मायावती देश की अकेली नेता हैं और बहुजन समाज पार्टी देश की अकेली ऐसी पार्टी है जिसका कोई अपना बौद्धिक तंत्र नहीं है. मायावती अभी तक किसी बौद्धिक तंत्र के बिना ही उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अकेले सत्ता में पहुंची हैं इसलिए उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं लगती.

मायावती को भले ही किसी बौद्धिक तंत्र की जरूरत न हो पर देश के बौद्धिक तंत्र के लिए भी क्या मायावती और बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व नहीं है. वरना क्या कारण है कि मायावती के एक साल पूरे के शासन पर किसी ने टिप्पणी करने की जरूरत भी नहीं समझी.

इस मुद्दे पर विस्तार से तो शायद कोई समाजशास्त्री ही बता पाए. पर देश के बौद्धिक वर्ग के पिछले कुछ दशकों के व्यवहार पर नजर डालें तो दो बातें जेहन में आती हैं. एक मायावती और कांशीराम के शब्दों में देश का मीडिया और बुद्धिजीवी मनुवादी है. क्या एक दलित की बेटी का देश के सबसे बड़े राज्य में सत्तारूढ़ होना प्रबुद्ध वर्ग स्वीकार नहीं कर पाया है.

क्या मायावती का मुख्यमंत्री बनना और एक साल बिना किसी बड़े विवाद या संकट के पूरा करना राहुल गांधी के एक दलित के घर में खाना खाने से भी कम महत्वपूर्ण घटना है. देश के बौद्धिक वर्ग के व्यवहार से तो ऐसा ही लगता है.

दूसरे कारण को उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत की राजनीतिक संस्कृति तक ही सीमित रखना शायद ज्यादा बेहतर होगा. पिछले कुछ दशकों में राजनीति ने बौद्धिक वर्ग को ज्यादा सत्तापेक्षी बना दिया है. सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं से निजी और दूसरे संबंधों के आधार पर समर्थन और विरोध की मात्रा तय होती है. मायावती की पार्टी का एक नारा हुआ करता था, पत्थर रख लो छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर. ऐसा लगता है कि बौद्धिक वर्ग ने छाती पर पत्थर रखकर ही मायावती को स्वीकार किया है.

बहुजन समाज पार्टी का उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ होना इतना सहज और स्वाभाविक ढंग से नहीं हुआ कि जिनके हाथ से सत्ता गई उन्हें अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है. राजनीतिशास्त्र में इसे ग्रैजुअलिज्म (सुधारवाद) कहते हैं. यह क्रांति का लगभग उलटा होता है. यह आम तौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही संभव होता है. लोकतंत्र में परस्पर प्रतियोगी राजनीति सामान्य और धीमी गति की प्रक्रिया के जरिए आवश्यक सामाजिक बदलाव लाती है.

बहुजन समाज पार्टी का विकास और दलित वर्ग का राजनीतिक जागरण इसी प्रक्रिया से हुआ है. करीब दो दशकों में बहुजन समाज पार्टी ने इतनी लंबी दूरी तय की है. 1984 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश में कुल 2.60 फीसदी वोट मिले, 2004 के लोकसभा चुनाव में 24.67 फीसदी और 2007 में उत्तर प्रदेश में अकेले दम पर बहुमत.

बहुजन समाज पार्टी के विकास को केवल जातीय गणना के आधार पर देखना सही नहीं होगा. उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी करीब इक्कीस फीसदी है. किसी और जातीय समूह की इतनी बड़ी संख्या नहीं है. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक डा. दीपांकर गुप्ता ने उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में जातियों की जनसंख्या और उसके चुनावी असर का अध्ययन किया है. उन्होंने अपनी किताब 'इंटेरोगेटिंग कास्ट' में लिखा है कि जातियों की संख्या के आधार पर चुनाव में जीत-हार तय नहीं होती.

अध्ययन के लिए उन्होंने 1991, 1996 और 1998 के लोकसभा चुनावों के आंकड़े लिए हैं. उत्तर प्रदेश के मामले में उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, मेरठ, आगरा और सहारनपुर का उदाहरण दिया है. इन जिलों को जाट प्रभुत्व वाला इलाका माना जाता है. पर इनमें जाटों की आबादी कुल आबादी का दस फीसदी से ज्यादा नहीं है. जबकि इन जिलों में दलित आबादी 25 से 30 फीसदी है. फिर भी इन्हें दलित प्रभुत्व वाला नहीं माना जाता.

दीपांकर गुप्ता का कहना है कि चुनाव जीतने के लिए अपनी जाति की संख्या से अधिक जातियों की केमिस्ट्री प्रभावी होती है. संख्या में ज्यादा होने पर भी दलित इसलिए प्रभावी नहीं थे क्योंकि उनकी संगठन क्षमता और उसके लिए आवश्यक संसाधन नहीं था.

मायावती ने दलितों को ये दोनों चीजें मुहैया कराई हैं. जातियों का समीकरण अब भी वही है. फर्क यह हुआ है कि राजनीतिक रूप से जागरूक दलित अब अपने से संख्या में कम जातियों का नेतृत्व स्वीकार करने की बजाय उनका नेतृत्व कर रहा है.

गांवों में रोजगार के घटते अवसरों ने देश की अर्थव्यवस्था पर जो भी असर डाला हो दलितों के राजनीतिक सशक्तीकरण में उसकी अहम भूमिका रही है. गांवों में प्रति व्यक्ति खेती के घटते रकबे ने दलितों की खेतिहर जातियों पर रोजगार के लिए निर्भरता घटी दी है. अब वे अपनी राजनीतिक दिशा तय करने के लिए स्वतंत्र हैं. मायावती ने उन्हें नेतृत्व और आत्मविश्वास दोनों दिया है.

दलित समाज में आए इतने बड़े बदलाव से देश की सबसे बड़ी और पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस बेखबर है. ऐसा न होता तो वह उत्तर प्रदेश में अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने की कोशिश में राहुल गांधी को दलित बस्ती में खाना खाने और रात बिताने की रणनीति नहीं अपनाती.

मायावती के राज में दलित अब किसी राजा या युवराज के उसकी कुटिया में आने भर से धन्य होने को तैयार नहीं है. वह क्षणिक आवेग में आ जाए तो भी उससे अभिभूत होकर वोट देने को तैयार नहीं है. वह राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी ही नहीं, अब नेतृत्व भी चाहता है. मायावती उत्तर प्रदेश तक अपने को सीमित नहीं रखना चाहतीं. वे खुद और उनके मंत्री देश भर का दौरा कर रहे हैं.

पहले विधानसभा चुनाव में भारी जीत और उसके बाद उपचुनावों में विपक्ष के सफाए से वे उत्तर प्रदेश से निश्चिंत हैं. मीडिया, बुद्धिजीवियों और अकादमिक लोगों की आलोचना और उपेक्षा से बेपरवाह. कांग्रेस को शायद अंदाजा ही नहीं है कि वह उसका कितना बड़ा नुकसान करने की तैयारी कर रही है. देश भर में लोकसभा की आधी से ज्यादा सीटों पर बसपा कांग्रेस के आठ से दस फीसदी वोट काटने की तैयारी में है.

मायावती भले ही उत्तर प्रदेश की गद्दी पर बैठी हों, उनकी नजर दिल्ली की कुर्सी पर है. उत्तर प्रदेश में निश्चिंत और निर्द्वंद्व एक साल का शासन उनका और उनके समर्थकों का आत्मविश्वास बढ़ाएगा.

Tuesday, March 25, 2008

आओ-आओ...अगवानी !

एक तो नेता वगैरा आत्मकथा जैसी चीजें लिखते नहीं हैं, फिर ऐसी कोई किताब लिखी भी जाती है तो उसमें उस निर्मम तटस्थता का अभाव होता है जो उन्हें सर्वग्राह्य और सर्वकालिक उपयोगी होने से वंचित करती है. भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का आत्मकथा "माई कंट्री, माई लाइफ" भी हमें बहुत कुछ नया नहीं बताती. एक ऐसी पुस्तक से आप वैसे भी बड़ी उम्मीद नहीं बांध सकते जिसके लिखने के उद्देश्य ही बड़े और व्यापक न हों. यह आत्मकथा दरअसल आडवाणी का चतुराई भरा राजनीतिक पैंतरा है.

चार जून, 2005 को भारतीय जनता पर्टी के केंद्रीय कार्यालय में पाकिस्तान से एक फैक्स आया. पार्टी का कोई वरिष्ठ पदाधिकारी कार्यालय में नहीं था. फैक्स पढ़ने वाले ने राष्ट्रीय महामंत्री प्रमोद महाजन को गुवाहाजी फोन किया. महाजन ने कहा, पढ़कर सुनाओ. सुनने के बाद महाजन ने कहा कि यह प्रेस में नहीं जाना चाहिए, साथ ही कहा कि दूसरे पदाधिकारियों से भी बात कर लो.


वेंकैया नायडू, संजय जोशी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और बाल आप्टे को फैक्स का मजमून पढ़कर सुनाया गया. सबकी राय एक ही थी. यह जिन्ना की मजार पर आडवाणी के भाषण का फैक्स था. वेंकैया नायडू, अरुण जेटली, संजय जोशी और बाल आप्टे संघ कार्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह मोहन भागवत से मिले. सबको बता दिया गया कि ये संघ को मंजूर नहीं और आडवाणी को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाने की मुहिम शुरू हो गई.


छह जून को आडवाणी दिल्ली पहुंचे तो हिंदू जागरण मंच ने हवाई अड्डे पर नारा लगाया- जिन्ना समर्थक, पाकिस्तान प्रेमी आडवाणी वापस जाओ. पार्टी के वरिष्ठ नेता हवाई अड्डे पर ही आडवाणी से मिले और कहा कि पार्टी में इस मुद्दे पर चर्चा के बाद ही वे मीडिया से बात करें. आडवाणी नहीं माने. सात जून को आडवाणी को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा.


उसी दिन शाम को पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक अध्यक्ष के बिना हुई और इसमें एक प्रस्ताव पास करके आडवाणी के योगदान की सराहना करते हुए उनसे इस्तीफा वापस लेने की मांग की गई. ऐसा न लगे कि उन्हें हटाया जा रहा है इसलिए बैठक के बाद लगभग सारे पदाधिकारी आडवाणी के घर गए यह कहने कि वे अपने इस्तीफे पर पुनर्विचार करें. सबकी उम्मीद के विपरीत आडवाणी ने कहा कि वे सोचकर बताएंगे.


नौ जून की दोपहर आडवाणी तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत के यहां भोजन पर गए. पूरा किस्सा सुनाया. दोनों बात करके रोए. उसके बाद शेखावत ने कहा कि इस्तीफा मत दीजिए. आप क्या समझ रहे हैं कि ये लोग आपको पार्टी अध्यक्ष पद से हटाकर चुप हो जाएंगे. इस्तीफा दिया तो आपको और भी अपमान सहना पड़ेगा.


आडवाणी घर लौटे और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया और पूछा कि क्या वे अभी आ सकते हैं. मोदी भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के साथ दक्षिण दिल्ली के एक रेस्तरां में खाना खाने जा रहे थे. रास्ते से ही मुड़कर आडवाणी के घर पहुंचे. दोनों में लंबी बात हुई और मोदी आडवाणी बचाओ अभियान में जुट गए.


सवाल था समय का. इसलिए कहा गया कि जसवंत सिंह के इजरायल से लौटने के बाद आडवाणी के इस्तीफे पर फैसला होगा. जसवंत सिंह को लाने के लिए रिलायंस का जहाज भेजा गया. उन्होंने लौटने में तीन दिन लगाए. तब तक मोदी आग को काफी हद तक बुझा चुके थे. सहमति बनी कि आडवाणी को अध्यक्ष पद छोडना ही है पर थोड़ा रुककर.


उम्मीद थी कि आडवाणी अपनी पुस्तक "माई कंट्री, माई लाइफ" में इस घटना का विस्तार से ब्यौरा देंगे. या कम से कम इस बात का कि उनके पार्टी सहयोगी और पूरा संघ परिवार उनके खिलाफ क्यों हो गया. उन्होंने पुस्तक में लिखा है कि जिन्ना वाली टिप्पणी का उन्हें अफसोस नहीं है पर जीवन के छह दशक जिस संगठन में बिताए, उसमें अचानक खलनायक बन जाने का भी क्या उन्हें कोई अफसोस नहीं है?


नेताओं की आत्मकथा में लोग अक्सर उनके समय की बड़ी घटनाओं के पर्दे के पीछे की कहानी खोजते हैं. आडवाणी की किताब में ऐसे प्रसंगों का जिक्र तो है लेकिन कोई ऐसी बात नहीं है जो लोग पहले से न जानते हों. इन घटनाओं पर उनकी राय ऐसी ही मामलों में आई है जो आडवाणी को किसी न किसी आरोप से बरी करती हो.


कांधार प्रकरण के समय वे देश के गृहमंत्री थे. क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप की बैठक क्यों देर से हुई, क्यों इंडियन एयरलाइंस के उस विमान को अमृतसर में नहीं रोका जा सका और आतंकवादियों को भेजने का फैसला किसका था? उन्होंने इस पूरे प्रकरण में नई बात यह बताई कि जसवंत सिंह के आतंकवादियों को लेकर जाने की उन्हें जानकारी नहीं थी.


2004 के लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने का फैसला किसका था? भाजपा में आम धारणा है कि यह फैसला मूलतः आडवाणी का था. उनकी किताब में यह बात तो है कि अटल बिहारी वाजपेयी समय से पहले चुनाव के सुझाव पर उत्साहित नहीं थे और आडवाणी खुद इसके पक्ष में थे. आखिर इंडिया शाइनिंग का नारा उन्हीं का था.


आडवाणी ने इस मुद्दे पर बड़ी चतुराई से चंद्रबाबू नायडू पर दोष डाल दिया है. उन्होंने लिखा है कि 1999 का विधानसभा और लोकसभा चुनाव चंद्रबाबू नायडू, वाजपेयी और राजग की लोकप्रियता बूते जीते. वे चाहते थे कि विधानसभा चुनाव जल्दी हों और लोकसभा चुनाव साथ हों तो उन्हें फायदा मिलेगा. आडवाणी के मुताबिक इतने महत्वपूर्ण सहयोगी दल की बात को टाला भी तो नहीं जा सकता था.


इसी तरह पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा में हुई शिखर वार्ता से संबंधित अध्याय को ध्यान से पढ़ें तो आडवाणी कहते हुए नजर आएंगे कि उन्होंने रोका न होता तो शिखर वार्ता के बाद आतंकवाद और घुसपैठ का जिक्र किए बिना ही साझा बयान जारी हो गया होता. आगरा शिखर वार्ता नाकाम होने के बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश विपक्ष की ओर से नहीं, भाजपा की ओर से ही हुई. उस समय आडवाणी के संघ से अच्छे संबंध थे. प्रो. राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया सरसंघचालक का कार्यभार केएस सुदर्शन को सौंप चुके थे.


पुस्तक में जिक्र है कि रज्जू भैया एक दिन सुबह नाश्ते पर आडवाणी के यहां आए और बताया कि वे वाजपेयी से मिले थे और उन्हें राष्ट्रपति बनने का सुझाव दिया. आडवाणी के मुताबिक उन्होंने रज्जू भैया से पूछा कि वाजपेयी की क्या प्रतिक्रिया थी. रज्जू भैया ने कहा कि वे सुनते रहे, कोई जवाब नहीं दिया.


ये किस्सा सही तो है पर अधूरा. रज्जू भैया वाजपेयी से मिले थे और कहा था कि उन्हें खराब स्वास्थ्य के चलते सुदर्शन को संघ का कार्यभार दिया है. आप भी आडवाणी जी को दायित्व सौंपकर राष्ट्रपति बन जाइए. पुस्तक में इस बात का भी जिक्र नहीं है कि इसके कुछ ही दिन बाद आडवाणी के विश्वस्त वेंकैया नायडू यह प्रस्ताव लेकर वाजपेयी के पास गए कि आप राष्ट्रपति बन जाइए. वाजपेयी ने रज्जू भैया को तो कोई जवाब नहीं दिया था पर कुछ दिन बाद वेंकैया को अपने सरकारी आवास पर आयोजित कार्यक्रम में यह कहकर जवाब दिया कि "न टायर, न रिटायर". आडवाणी जी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव में विजय की ओर प्रस्थान करे. उनके इस बयान को आडवाणी और उनके समर्थक समझ गए और उसके बाद वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिशों को विराम लग गया.


दरअसल, आडवाणी और वाजपेयी भारतीय राजनीति की दो ऐसी समानांतर चलने वाली धाराएं हैं जिनके साथ-साथ चलने से एक होने का बोध तो होता है पर वे कभी एक होती नहीं. वाजपेयी पर लिखे अध्याय में आडवाणी इस बात का जिक्र करना नहीं भूले कि 1995 में मुंबई अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के नाते जब उन्होंने वाजपेयी को भावी प्रधानमंत्री घोषित किया, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और पार्टी के ज्यादातर लोग मानते थे कि आडवाणी ही प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं.


आत्मकथा लिखने के कई मकसद होते हैं. आडवाणी की आत्मकथा कम से कम मकसद के मामले में इन सबसे अलग है. इसके मुख्य रूप से दो ही मकसद हैं. लालकृष्ण आडवाणी को अटल बिहारी वाजपेयी की छाया से निकालकर भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सर्वमान्य और एकमात्र नेता के रूप में पेश करना.


इस पुस्तक का दूसरा मकसद आडवाणी को ऐसे नेता के रूप में पेश करना है जो हमेशा से उदार और धर्मनिरपेक्ष पर दूसरों की बनाई कट्टरपंथी छवि से लड़ता रहा. आडवाणी ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि चीनी लिपि में क्राइसिस (संकट) को दो शब्दों के युग्म के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. एक का मतलब है खतरा और दूसरे का अवसर.


ऐसा लगता है कि आडवाणी ने अपनी आत्मकथा में दोनों का रणनीतिक इस्तेमाल किया है. जो बातें खतरा बन सकती थी, उन्हें छोड़ दिया है. जो अवसर के रूप में उपलब्ध हैं, उनका विस्तार से जिक्र किया. तो हे सुधी जनों, तैयार हो जाइए एक उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और सर्वमान्य नेता की अगवानी के लिए.

Thursday, February 7, 2008

ठोकर खाएंगे ठाकरे...

अमिताभ बच्चन की एक फिल्म है- लक्ष्य. उसमें अमिताभ भारतीय सेना के एक अधिकारी हैं. फिल्म में वह मराठी हैं. अपने मातहत अफसरों से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि हमारी मराठी में एक कहावत है- पहले उसे मराठी में सुनाते हैं फिर हिंदी में अर्थ बताते हैं कि अपना घर तो संभलता नहीं और दूसरों की बात करते हैं.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे के साथ भी कुछ ऐसा ही है. क्यों कर रहे हैं राज साहब ये सब. अपनी पार्टी का बिखराव रोकने के लिए, अपना जनाधार बढ़ाने के लिए या फिर उद्धव ठाकरे से मुकाबला करने के लिए या फिर मुंबई में दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों की समस्या की ओर लोगों का ध्यान खींचने के लिए या फिर अपना घर (पार्टी) ना संभाल पाने की हताशा?

उनका मकसद इनमें से कोई भी हो, पर वह उसे हासिल करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया है वह उन्हें एक और नाकामी की ओर ले जाएगा.

शिवसेना में रहते हुए उन्हें लग रहा था कि उनकी प्रतिभा के बजाय उनके ताऊ बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव को तरजीह दे रहे हैं. पार्टी में राज और उद्धव के बीच शीत युद्ध का एक दौर चला. उन्हें लग रहा था कि ठाकरे अब महाराष्ट्र के तो क्या मुंबई के भी शेर नहीं रहे. उनका सोचना गलत नहीं था.

ऐसे में राज ठाकरे के समर्थकों को उनमें पुराने बाला साहब की झलक दिखाई दे रही थी और राज को खुद भी ऐसा ही लगता था. राज ठाकरे ने ऐसे समय में शिवसेना छोड़ी जब बाल ठाकरे के पुराने साथी एक-एक कर पार्टी से बाहर अपना भविष्य तलाश रहे थे. राज ठाकरे को लगा कि उद्धव उनका मुकाबला क्या करेंगे, सेना की विरासत तो उनका इंतजार कर रही है. बस उनके आगे बढ़कर संभालने की देर है.

महाराष्ट्र और मुंबई के स्थानीय निकाय चुनावों में वो सेना की विरासत पर मतदाता की मुहर लगवाने के इरादे से उतरे. चुनाव नतीजों से पता चला कि हकीकत और राज ठाकरे के सपनों की दुनिया में बहुत फासला है. राज ठाकरे बाला साहब से हार जाते तो शायद उन्हें इसका ज्यादा मलाल ना होता लेकिन उद्धव से हार को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए.
24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस होता है. मुंबई के उत्तर भारतीय उत्तर प्रदेश दिवस और छठ के त्यौहार को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं. उत्तर प्रदेश दिवस पर दो कार्यक्रमों में उद्धव ठाकरे भी गए और उनका खासा स्वागत भी हुआ. इस घटना ने राज ठाकरे की हताशा को और बढ़ा दिया.

शिवसेना का इतिहास राज ठाकरे को पता है, लेकिन ऐसा लगता है कि मुंबई के वर्तमान को वह भूल गए. बाल ठाकरे के चार दशक पुराने रास्ते पर चलने का फैसला करने से पहले उन्होंने कोई गंभीर सोच विचार नहीं किया. अगर करते तो समझ जाते कि बाल ठाकरे की तरह उनके पास मराठी संस्कृति और अस्मिता की रक्षा जैसे नारों का कोई भावनात्मक आधार नहीं है.

वे यह भी भूल गए कि फरवरी 1956 में मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन के लिए जिस तरह संयुक्त महाराष्ट्र समिति का गठन हुआ उसके प्रमुख नेताओं में बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे भी थे. 1960 में बंबई प्रांत को तोड़कर मराठी भाषियों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती भाषियों के लिए गुजरात बना.

मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य बनने के बावजूद असरदार पदों पर गैरमराठियों के काबिज होने को आधार बनाकर शिवसेना ने अपने पैर जमाए. आज की मुंबई में मराठी 60 के दशक की तरह उपेक्षित नहीं हैं. बाल ठाकरे अपनी हिंसा की राजनीति के बावजूद अगर कभी जेल नहीं गए तो इस कारण कि मुंबई से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस के असरदार नेताओं का हाथ उनकी पीठ पर था.

हिंसा की राजनीति करने वाले का रसूख तभी तक रहता है जब तक राज्य सत्ता की ताकत उस पर अंकुश नहीं लगाती है. तमाम और बातों के अलावा बाल ठाकरे की सबसे बड़ी ताकत यही थी. आज तक किसी भी मामले में ठाकरे या उनका विश्वस्त जेल नहीं गया.

राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता जिन गरीब टैक्सी वालों, सब्जीवालों और रेहड़ी पटरी के लोगों को निशाना बना रहे हैं, उन्होंने मराठी लोगों से ना तो रोजगार छीना है और ना ही उनकी संस्कृति के लिए कोई खतरा है.

अमिताभ बच्चन आज सुपर स्टार हैं तो इसलिए नहीं कि वो मुंबई में रहते हैं. यदि फिल्म उद्योग मुंबई में नहीं होता तो भी अमिताभ बच्चन सुपर स्टार ही होते. बच्चन और उनके जैसे कलाकारों ने मुंबई से जितना लिया उससे ज्यादा दिया है.

राज ठाकरे को यह बात समझ में नहीं आएगी इसलिए कि वे समझना ही नहीं चाहते. राजसत्ता को उन्हें और उनके समर्थकों को बताना पड़ेगा कि विभाजनकारी ताकतों के एक और दौर के लिए मुंबई तैयार नहीं है. यह जल्दी हो, सबके लिए ये अच्छा होगा.

Wednesday, February 6, 2008

अर्थनीति बनाम राजनीतिः कैसे सधे दोऊ..!

बजट का संबंध आर्थिक नीति से होता है या राजनीति से? आप आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं तो कहेंगे कि राजनीति बाद में, आर्थिक नीति पहले और, अगर नेता हैं तो कहेंगे आर्थिक नीति बाद में देख लेंगे, पहले देखो कि इससे हमारी राजनीति न बिगड़ जाए.

गलती से कहीं आप मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम हैं तो दोनों में संतुलन साधने की चुनौती आपके सामने है. कहते हैं कि अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति भी हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन जनतंत्र में जो यह नहीं पर पाएगा उसकी अर्थनीति और राजनीति दोनों बिगड़ जाएगी. इस बात का एहसास मनमोहन सिंह से ज्यादा और किसे होगा.

भारत में मनमोहन सिंह और पीवी नरसिंहराव की जोड़ी, आर्थिक उदारीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण के जनक हैं. 1991-92 में शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को घोर संकट से उबार लिया बल्कि उसे विकास के हाईवे पर डाल दिया.

पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की इस कामयाबी ने देश और दुनिया में खूब झंडे गाड़े. पांच साल बाद आम चुनाव हुए तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए.

कांग्रेस की हार में सबसे बड़ा योगदान आर्थिक नीतियों का था. वह भी ऐसे हालात में जब इन नीतियों को लेकर वामदलों के अलावा किसी का विरोध नहीं था. वामदलों का विरोध भी दिल्ली में सुनाई देता है और कोलकाता पहुंचत-पहुंचते उसकी दिशा बदल जाती है.

पिछले डेढ़ दशक में आर्थिक उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को विससित देशों के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. इसके बावजूद जो भी उदारीकरण का चैंपियन बना, उसे जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कर्नाटक में एसएम कृष्णा, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और केंद्र में इंडिया शाईनिंग का नारा लगाकर भारतीय जनता पार्टी अब तक पछता रही है. पर यह भी सच है कि न तो भाजपा ने कांग्रेस की दुर्दशा से सबक सीखा और न ही कांग्रेस ने भाजपा की हार से.

हालांकि सत्ता में आने से पहले कांग्रेस ने जब राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया उस समय लग रहा था कि कांग्रेस इस बार पुरानी गलती नहीं दोहराएगी. करीब चार साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी फिर वहीं खड़ी है जहां 1996 में थी.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह रही हैं कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ठीक से लागू नहीं हुई. राहुल गांधी कह रहे हैं कि योजनाओं के एक रुपए का केवल पांच पैसा जरूरतमंद तक पहुंच रहा है.

मनमोहन सिंह सरकार के इस कार्यकाल का यह आखिरी बजट होगा. वित्तमंत्री पी चिदंबरम जब बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे तो उनके सामने अपने पहले ड्रीम बजट की यादें होंगी या आम आदमी के सपने.

साढ़े आठ फीसदी की विकास दर, तरक्की करता सेवा क्षेत्र, उत्पादन बढ़ाता औद्योगिक क्षेत्र और प्रत्यक्ष कर से लबालब वित्तमंत्री की झोली, ये सब तथ्य क्या देश के 44 फीसदी ग्रामीणों के घरों को रौशन कर सकते हैं.

भारतीय नमून सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 74 फीसद ग्रामीण घरों में अब भी उपले और लकड़ी पर खाना बनता है. वित्तमंत्री पेट्रोल और डीजल पर कितनी सब्सिडी दे रहे हैं, इससे इनलोगों को क्या मतलब..?

बात केवल गांव की नहीं, शहर में भी गरीब के हालात बहुत अलग नहीं हैं. शहरों में 22 फीसदी लोग रोजाना 19 रुपए प्रतिव्यक्ति ही खर्च करने की हैसियत रखते हैं.

प्रधानमंत्री के तमाम आश्वासनों और पैकेज के बावजूद किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही. बुंदेलखंड में पानी से बेहाल लोग पलायन कर रहे हैं फिर भी अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की रफ्तार से दौड़ रही है.

विकास के इन आंकड़ों का हाल मुद्रास्फीति की दर की तरह है जो आंकड़ों में घटती है तो वास्तविकता में महंगाई बढ़ती है.

आर्थिक नीतियां हों या बजट घोषणाएं, कोई सरकार आज तक इनके बूते चुनाव नहीं जीती है. हां, चुनाव हारने वालों की लंबी फेहरिस्त है. इंदिरा गांधी 1971 में आर्थिक नीतियों के कारण नहीं गरीबी हटाओ के नारे पर जीती थीं. महंगाई कम करके भी जनता पार्टी चुनाव हार गई थी.

मनमोहन सिंह, चिदंबरम और कांग्रेस पार्टी को यह सब पता है. अच्छी आर्थिक नीति को अच्छी राजनीति बनाने की दिशा में ग्रामीण रोजगार गारंटी और भारत उदय योजना शुरू की गई थी.

पर योजना बनाना और उसे लागू करना दोनों अलग बातें हैं. ऐसी सारी योजनाएं भ्रष्ट तंत्र के लिए कमाई के नए अवसर लाती है. अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही कांग्रेस भी शायद बजट के सहारे चुनाव जीतना चाहती है और उसके विरोधी इसी के आधार पर उसे मात देना चाहते हैं.

इसलिए बजट पर सरकार के घटक दलों की नजर है तो विरोधियों की भी.

इन चार सालों में कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वामदल चिदंबरम की बलि लेकर ही मानेंगे. बजट बनाते समय वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की विकास दर, बजट घाटे, वामदलों की इच्छा, विरोधियों की आलोचना और अपनी पार्टी की चुनावी सभाओं का ध्यान रखना होगा.

अर्थशास्त्री भविष्य की सोचता है तो राजनेता अगले चुनाव की. मनमोहन सिंह जब चिदंबरम के बजट प्रस्ताव को मंजूर करेंगे तो उनके अंदर का अर्थशास्त्री हावी होगा या पिछले चार सालों की राजनीति का अनुभव.

क्योंकि अच्छा बजट बनाना और चुनाव जीतना, दोनों अलग-अलग विधाएं हैं. यह बजट देश की अर्थव्यवस्था की दिशा ही तय नहीं करेगा, कांग्रेस की राजनीतिक दशा भी तय करेगा.