Thursday, February 7, 2008

ठोकर खाएंगे ठाकरे...

अमिताभ बच्चन की एक फिल्म है- लक्ष्य. उसमें अमिताभ भारतीय सेना के एक अधिकारी हैं. फिल्म में वह मराठी हैं. अपने मातहत अफसरों से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद के बारे में समझाते हुए कहते हैं कि हमारी मराठी में एक कहावत है- पहले उसे मराठी में सुनाते हैं फिर हिंदी में अर्थ बताते हैं कि अपना घर तो संभलता नहीं और दूसरों की बात करते हैं.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे के साथ भी कुछ ऐसा ही है. क्यों कर रहे हैं राज साहब ये सब. अपनी पार्टी का बिखराव रोकने के लिए, अपना जनाधार बढ़ाने के लिए या फिर उद्धव ठाकरे से मुकाबला करने के लिए या फिर मुंबई में दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों की समस्या की ओर लोगों का ध्यान खींचने के लिए या फिर अपना घर (पार्टी) ना संभाल पाने की हताशा?

उनका मकसद इनमें से कोई भी हो, पर वह उसे हासिल करने का जो तरीका उन्होंने अपनाया है वह उन्हें एक और नाकामी की ओर ले जाएगा.

शिवसेना में रहते हुए उन्हें लग रहा था कि उनकी प्रतिभा के बजाय उनके ताऊ बाल ठाकरे अपने बेटे उद्धव को तरजीह दे रहे हैं. पार्टी में राज और उद्धव के बीच शीत युद्ध का एक दौर चला. उन्हें लग रहा था कि ठाकरे अब महाराष्ट्र के तो क्या मुंबई के भी शेर नहीं रहे. उनका सोचना गलत नहीं था.

ऐसे में राज ठाकरे के समर्थकों को उनमें पुराने बाला साहब की झलक दिखाई दे रही थी और राज को खुद भी ऐसा ही लगता था. राज ठाकरे ने ऐसे समय में शिवसेना छोड़ी जब बाल ठाकरे के पुराने साथी एक-एक कर पार्टी से बाहर अपना भविष्य तलाश रहे थे. राज ठाकरे को लगा कि उद्धव उनका मुकाबला क्या करेंगे, सेना की विरासत तो उनका इंतजार कर रही है. बस उनके आगे बढ़कर संभालने की देर है.

महाराष्ट्र और मुंबई के स्थानीय निकाय चुनावों में वो सेना की विरासत पर मतदाता की मुहर लगवाने के इरादे से उतरे. चुनाव नतीजों से पता चला कि हकीकत और राज ठाकरे के सपनों की दुनिया में बहुत फासला है. राज ठाकरे बाला साहब से हार जाते तो शायद उन्हें इसका ज्यादा मलाल ना होता लेकिन उद्धव से हार को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए.
24 जनवरी को उत्तर प्रदेश दिवस होता है. मुंबई के उत्तर भारतीय उत्तर प्रदेश दिवस और छठ के त्यौहार को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं. उत्तर प्रदेश दिवस पर दो कार्यक्रमों में उद्धव ठाकरे भी गए और उनका खासा स्वागत भी हुआ. इस घटना ने राज ठाकरे की हताशा को और बढ़ा दिया.

शिवसेना का इतिहास राज ठाकरे को पता है, लेकिन ऐसा लगता है कि मुंबई के वर्तमान को वह भूल गए. बाल ठाकरे के चार दशक पुराने रास्ते पर चलने का फैसला करने से पहले उन्होंने कोई गंभीर सोच विचार नहीं किया. अगर करते तो समझ जाते कि बाल ठाकरे की तरह उनके पास मराठी संस्कृति और अस्मिता की रक्षा जैसे नारों का कोई भावनात्मक आधार नहीं है.

वे यह भी भूल गए कि फरवरी 1956 में मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन के लिए जिस तरह संयुक्त महाराष्ट्र समिति का गठन हुआ उसके प्रमुख नेताओं में बाल ठाकरे के पिता प्रबोधनकर ठाकरे भी थे. 1960 में बंबई प्रांत को तोड़कर मराठी भाषियों के लिए महाराष्ट्र और गुजराती भाषियों के लिए गुजरात बना.

मराठी भाषियों के लिए अलग राज्य बनने के बावजूद असरदार पदों पर गैरमराठियों के काबिज होने को आधार बनाकर शिवसेना ने अपने पैर जमाए. आज की मुंबई में मराठी 60 के दशक की तरह उपेक्षित नहीं हैं. बाल ठाकरे अपनी हिंसा की राजनीति के बावजूद अगर कभी जेल नहीं गए तो इस कारण कि मुंबई से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस के असरदार नेताओं का हाथ उनकी पीठ पर था.

हिंसा की राजनीति करने वाले का रसूख तभी तक रहता है जब तक राज्य सत्ता की ताकत उस पर अंकुश नहीं लगाती है. तमाम और बातों के अलावा बाल ठाकरे की सबसे बड़ी ताकत यही थी. आज तक किसी भी मामले में ठाकरे या उनका विश्वस्त जेल नहीं गया.

राज ठाकरे और उनकी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कार्यकर्ता जिन गरीब टैक्सी वालों, सब्जीवालों और रेहड़ी पटरी के लोगों को निशाना बना रहे हैं, उन्होंने मराठी लोगों से ना तो रोजगार छीना है और ना ही उनकी संस्कृति के लिए कोई खतरा है.

अमिताभ बच्चन आज सुपर स्टार हैं तो इसलिए नहीं कि वो मुंबई में रहते हैं. यदि फिल्म उद्योग मुंबई में नहीं होता तो भी अमिताभ बच्चन सुपर स्टार ही होते. बच्चन और उनके जैसे कलाकारों ने मुंबई से जितना लिया उससे ज्यादा दिया है.

राज ठाकरे को यह बात समझ में नहीं आएगी इसलिए कि वे समझना ही नहीं चाहते. राजसत्ता को उन्हें और उनके समर्थकों को बताना पड़ेगा कि विभाजनकारी ताकतों के एक और दौर के लिए मुंबई तैयार नहीं है. यह जल्दी हो, सबके लिए ये अच्छा होगा.

Wednesday, February 6, 2008

अर्थनीति बनाम राजनीतिः कैसे सधे दोऊ..!

बजट का संबंध आर्थिक नीति से होता है या राजनीति से? आप आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं तो कहेंगे कि राजनीति बाद में, आर्थिक नीति पहले और, अगर नेता हैं तो कहेंगे आर्थिक नीति बाद में देख लेंगे, पहले देखो कि इससे हमारी राजनीति न बिगड़ जाए.

गलती से कहीं आप मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम हैं तो दोनों में संतुलन साधने की चुनौती आपके सामने है. कहते हैं कि अच्छी अर्थनीति अच्छी राजनीति भी हो यह जरूरी नहीं है. लेकिन जनतंत्र में जो यह नहीं पर पाएगा उसकी अर्थनीति और राजनीति दोनों बिगड़ जाएगी. इस बात का एहसास मनमोहन सिंह से ज्यादा और किसे होगा.

भारत में मनमोहन सिंह और पीवी नरसिंहराव की जोड़ी, आर्थिक उदारीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था के भूमंडलीकरण के जनक हैं. 1991-92 में शुरू की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को घोर संकट से उबार लिया बल्कि उसे विकास के हाईवे पर डाल दिया.

पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह की इस कामयाबी ने देश और दुनिया में खूब झंडे गाड़े. पांच साल बाद आम चुनाव हुए तो कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए पर लोकसभा का चुनाव नहीं जीत पाए.

कांग्रेस की हार में सबसे बड़ा योगदान आर्थिक नीतियों का था. वह भी ऐसे हालात में जब इन नीतियों को लेकर वामदलों के अलावा किसी का विरोध नहीं था. वामदलों का विरोध भी दिल्ली में सुनाई देता है और कोलकाता पहुंचत-पहुंचते उसकी दिशा बदल जाती है.

पिछले डेढ़ दशक में आर्थिक उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को विससित देशों के बरक्स खड़ा करने की कोशिश की है. इसके बावजूद जो भी उदारीकरण का चैंपियन बना, उसे जनता ने बाहर का रास्ता दिखा दिया.

कर्नाटक में एसएम कृष्णा, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू और केंद्र में इंडिया शाईनिंग का नारा लगाकर भारतीय जनता पार्टी अब तक पछता रही है. पर यह भी सच है कि न तो भाजपा ने कांग्रेस की दुर्दशा से सबक सीखा और न ही कांग्रेस ने भाजपा की हार से.

हालांकि सत्ता में आने से पहले कांग्रेस ने जब राष्ट्रीय साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाया उस समय लग रहा था कि कांग्रेस इस बार पुरानी गलती नहीं दोहराएगी. करीब चार साल सत्ता में रहने के बाद पार्टी फिर वहीं खड़ी है जहां 1996 में थी.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी कह रही हैं कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ठीक से लागू नहीं हुई. राहुल गांधी कह रहे हैं कि योजनाओं के एक रुपए का केवल पांच पैसा जरूरतमंद तक पहुंच रहा है.

मनमोहन सिंह सरकार के इस कार्यकाल का यह आखिरी बजट होगा. वित्तमंत्री पी चिदंबरम जब बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे तो उनके सामने अपने पहले ड्रीम बजट की यादें होंगी या आम आदमी के सपने.

साढ़े आठ फीसदी की विकास दर, तरक्की करता सेवा क्षेत्र, उत्पादन बढ़ाता औद्योगिक क्षेत्र और प्रत्यक्ष कर से लबालब वित्तमंत्री की झोली, ये सब तथ्य क्या देश के 44 फीसदी ग्रामीणों के घरों को रौशन कर सकते हैं.

भारतीय नमून सर्वेक्षण संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 74 फीसद ग्रामीण घरों में अब भी उपले और लकड़ी पर खाना बनता है. वित्तमंत्री पेट्रोल और डीजल पर कितनी सब्सिडी दे रहे हैं, इससे इनलोगों को क्या मतलब..?

बात केवल गांव की नहीं, शहर में भी गरीब के हालात बहुत अलग नहीं हैं. शहरों में 22 फीसदी लोग रोजाना 19 रुपए प्रतिव्यक्ति ही खर्च करने की हैसियत रखते हैं.

प्रधानमंत्री के तमाम आश्वासनों और पैकेज के बावजूद किसानों की आत्महत्या रुकने का नाम नहीं ले रही. बुंदेलखंड में पानी से बेहाल लोग पलायन कर रहे हैं फिर भी अर्थव्यवस्था नौ फीसदी की रफ्तार से दौड़ रही है.

विकास के इन आंकड़ों का हाल मुद्रास्फीति की दर की तरह है जो आंकड़ों में घटती है तो वास्तविकता में महंगाई बढ़ती है.

आर्थिक नीतियां हों या बजट घोषणाएं, कोई सरकार आज तक इनके बूते चुनाव नहीं जीती है. हां, चुनाव हारने वालों की लंबी फेहरिस्त है. इंदिरा गांधी 1971 में आर्थिक नीतियों के कारण नहीं गरीबी हटाओ के नारे पर जीती थीं. महंगाई कम करके भी जनता पार्टी चुनाव हार गई थी.

मनमोहन सिंह, चिदंबरम और कांग्रेस पार्टी को यह सब पता है. अच्छी आर्थिक नीति को अच्छी राजनीति बनाने की दिशा में ग्रामीण रोजगार गारंटी और भारत उदय योजना शुरू की गई थी.

पर योजना बनाना और उसे लागू करना दोनों अलग बातें हैं. ऐसी सारी योजनाएं भ्रष्ट तंत्र के लिए कमाई के नए अवसर लाती है. अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की तरह ही कांग्रेस भी शायद बजट के सहारे चुनाव जीतना चाहती है और उसके विरोधी इसी के आधार पर उसे मात देना चाहते हैं.

इसलिए बजट पर सरकार के घटक दलों की नजर है तो विरोधियों की भी.

इन चार सालों में कई ऐसे मौके आए जब लगा कि वामदल चिदंबरम की बलि लेकर ही मानेंगे. बजट बनाते समय वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की विकास दर, बजट घाटे, वामदलों की इच्छा, विरोधियों की आलोचना और अपनी पार्टी की चुनावी सभाओं का ध्यान रखना होगा.

अर्थशास्त्री भविष्य की सोचता है तो राजनेता अगले चुनाव की. मनमोहन सिंह जब चिदंबरम के बजट प्रस्ताव को मंजूर करेंगे तो उनके अंदर का अर्थशास्त्री हावी होगा या पिछले चार सालों की राजनीति का अनुभव.

क्योंकि अच्छा बजट बनाना और चुनाव जीतना, दोनों अलग-अलग विधाएं हैं. यह बजट देश की अर्थव्यवस्था की दिशा ही तय नहीं करेगा, कांग्रेस की राजनीतिक दशा भी तय करेगा.