Wednesday, October 31, 2007

कसौटी पर मोदी का ‘एजेंडा’

चुनाव आयोग दिल्ली में जिस समय गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव कार्यक्रम की घोषणा कर रहा था, ठीक उसी समय नरेन्द्र मोदी अहमदाबाद में पार्टी के एक लाख कार्यकर्ताओं को यूथ प्रबंधन के गुर सिखा रहे थे.

दूसरी ओर कांग्रेस के नेता गुजरात में एक चरण में मतदान कराने के लिए चुनाव आयोग को पत्र लिखने की तैयारी कर रहे थे. कांग्रेस की सहयोगी वामपंथी पार्टियां चुनाव आयोग पर गुजरात के प्रति नरम होने का आरोप लगाने की तैयारी कर रहीं थीं.

चुनावी कार्यक्रम ही गुजरात में चुनाव का पहला मुद्दा बना है. कांग्रेस राज्य में एक चरण का चुनाव चाहती थी. उसके नेताओं ने आयोग से मिलकर यह मांग भी की. आयोग ने इसके लिए गृह मंत्रालय से सुरक्षा बलों की मांग की. गृह मंत्रालय केंद्रीय सुरक्षा बलों की 450 से ज्यादा कंपनियां देने को तैयार नहीं था.

आयोग का कहना था कि सुरक्षा बल की इतनी कंपनियों के साथ वह तीन चरण में मतदान कराएगा. कांग्रेस का आकलन है कि चुनाव जितना लंबा खिंचेगा, मोदी को उतना ज्यादा फायदा होगा. आयोग के रूख को देखते हुए गृह मंत्रालय केंद्रीय सुरक्षा बलों की छह सौ कंपनियां देने को तैयार हुआ. उसके बाद राज्य में दो चरणों में मतदान कराने का कार्यक्रम घोषित हुआ.
किसी भी चुनाव में पार्टियों को ऐसे मुद्दे की तलाश रहती है जिसके जरिए वह मतदाताओं को अपनी तरफ खींच सके. गुजरात एक ऐसा राज्य है जिसका चुनावी मुद्दा 2002 के विधानसभा चुनावों के बाद से ही तय माना जा रहा है. यहां लड़ाई भाजपा बनाम कांग्रेस की नहीं है. तो क्या धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता है.

2002 के दंगों को याद करें तो मुद्दा यही होना चाहिए था. पर दरअसल मुद्दा एक ही है, मोदी. कौन मोदी के समर्थन में है और कौन विरोध में. इस लड़ाई में पार्टी और संगठन की सीमाएं भी धुंधला गई हैं. इनमें गोरधन झड़फिया जैसे भाजपा नेता भी हैं जो 2002 के दंगे के समय गृहमंत्री थे और नरेन्द्र मोदी के करीबी भी.

विश्व हिन्दू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया नरेनद्र मोदी को हरवाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. संघ की मोदी से नाखुशी किसी से छिपी नहीं है. यह लड़ाई धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता होती तो इन लोगों को मोदी के पाले में होना चाहिए था.

पहले कांग्रेस की चुनावी तैयारी की बात करते हैं. राज्य में प्रदेश और जिला कांग्रेस कमेटी का पुनर्गठन काफी समय से लटका हुआ है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भरत सोलंकी कद में मोदी के सामने बौने नजर आते हैं. कांग्रेस के पास प्रदेश में मोदी के मुकाबले खड़ा करने लायक एक ही नेता हैं- शंकर सिंह वाघेला.

भाजपाई पृष्ठभूमि के कारण वाघेला अभी तक कांग्रेस में पूरी तरह स्वीकार्य नहीं हो पाए हैं. विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी की कितनी भूमिका रहेगी, इस पर कांग्रेस के अंदर बहस जारी है. पार्टी रणनीतिकार चाहते हैं कि राज्य में कांग्रेस जीते तो जीत का सेहरा राहुल गांधी के सर बंधे लेकिन पार्टी की हार का ठीकरा राहुल के सिर न फूटे.

केंद्र में सरकार होने के बावजूद कांग्रेस गुजरात में अपना खोया जनाधार वापस हासिल करने के लिए साढ़े तीन सालों में कुछ खास नहीं कर पाई. गुजरात के आदिवासी इलाके लंबे समय तक कांग्रेस का गढ़ रहे हैं. आदिवासी जनाधार लगातार भाजपा की ओर खिसकता जा रहा है. इसे रोकने के लिए यूपीए सरकार ने संसद में एक आदिवासी विधेयक पेश किया है. जुलाई, 2006 में यह विधेयक संसद के दोनों सदनों से पास हो गया है.

इस विधेयक के जरिए सरकार वन भूमि का पट्टा आदिवासियों को देना चाहती है. सवा साल से इस विधेयक की अधिसूचना जारी नहीं हो रही है. विधेयक पास होने के बाद नरेन्द्र मोदी तुरंत सक्रिय हो गए. राज्य सरकार ने 3,500 आदिवासियों को पट्टा बांट दिया. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है क्योंकि मौजूदा कानून के मुताबिक राज्य सरकार पट्टे नहीं दे सकती. मोदी और उनकी सरकार का प्रचार यह है कि हमने तो पट्टे दे दिए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है तो हम क्या करें.

काम कांग्रेस ने किया और श्रेय मोदी ले गए. यूपीए सरकार के अंदर ही कुछ नेताओं, सांसदों का एक धड़ा है जो इस विधेयक की अधिसूचना जारी नहीं होने दे रहा. यह सब इस राज्य के मामले में हो रहा है जिसके कारण यूपीए वजूद में आया. 2002 का गुजरात दंगा नहीं होता तो भाजपा के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताकतों की ऐसी एकजुटता नहीं बनती.

कांग्रेस अभी तक नहीं तय कर पाई है कि भाजपा के असंतुष्टों का किस तरह से उपयोग करें. उन्हें पार्टी में शामिल करने के मुद्दे पर कांग्रेस में मतभेद है. विरोध करने वालों का कहना है कि झड़फिया जैसे लोगों को लेकर कांग्रेस मोदी को सांप्रदायिकता के मुद्दे पर किस तरह घेरेगी. कांग्रेस के पास मुख्य तौर पर चार-पांच मुद्दे हैं. एक सरकार विरोधी हवा, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकता, 2002 का सांप्रदायिक दंगा, यूपीए सरकार का कामकाज और भाजपा के असंतुष्ट. इन मुद्दों को चुनावी फायदे की रणनीति में बदलना कांग्रेस के लिए चुनौती है.

कांग्रेस के मुकाबले भाजपा चुनाव के लिए पूरी तरह तैयार नजर आ रही है. चुनाव तिथियों की घोषणा के दिन मोदी और प्रदेश भाजपा नेतृत्व पचार हजार मतदान केंद्रों के लिए एक लाख कार्यकर्ताओं का सम्मेलन कर रहे थे. पिछले चुनाव में भाजपा की जीत में दंगों की अहम भूमिका थी. इस चुनाव में ऐसा कोई सांप्रदायिक मुद्दा नहीं है. मोदी विकास को मुद्दा बनाना चाहते हैं. साबरमती नदी को रिचार्ज करके, नर्मदा बांध की ऊंचाई बढ़वाकर, पानी-बिजली का इंतजाम करवाना, प्रदेश के 18 हजार गांवों में चौबीस घंटे बिजली उपलब्ध कराना और प्रदेश की विकास दर को राष्ट्रीय विकास दर से आगे ले जाने जैसे मुद्दों का भाजपा चुनावी फायदा उठाना चाहती है.

अब राजग के इंडिया शाइनिंग के विपरीत मोदी का गुजरात शाइनिंग का नारा गांवों में चल रहा है. ऐसे समय जब देश के कपास उगाने वाले किसान बदहाली में हैं, गुजरात में कपास की उपज करीब चार गुना हो गई है. यह अलग बात है कि उसका श्रेय सराकर से ज्यादा गैरकानूनी तरीके से आए बीटी कॉटन के बीजों को जाता है. पर राज्य सरकार ने इसमें वैल्यू एडीशन का काम कराया. सरकार का नया नारा है- फैब्रिक टू फैशन टू फॉरेन. यानी कपास से गांव में ही धागा-कपड़ें बनें, वहीं कपड़ों की डिजाइनिंग हो और वहीं से इनका निर्यात हो.

भाजपा और मोदी को भी पता है कि विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़कर जीतना लगभग नामुमकिन है. इसलिए नरेन्द्र मोदी विकास के मुद्दों को राष्ट्रवाद का जामा पहना रहे हैं. विकास, धर्मनिरपेक्ष ताकतों की एकती या राहुल गांधी का गुजरात चुनाव के प्रचार में बड़े पैमाने पर उतरना, इनमें से कोई भी मोदी या भाजपा के लिए उतनी बड़ी समस्या नहीं है. नरेन्द्र मोदी के लिए भाजपा और संघ परिवार समस्या है और इन दोनों के लिए मोदी.

भाजपा और संघ से जुड़े संगठनों का आरोप है कि नरेन्द्र मोदी अहंकारी हो गए हैं. हालत यह है कि भाजपा और संघ में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मोदी के बिना रह भी नहीं पा रहे हैं और मोदी को सह भी नहीं पा रहे हैं. मोदी का कद संगठन से बड़ा हो गया है. व्यक्ति के मुकाबले संगठन की सर्वोच्चता की बात करने वाले संघ परिवार को यह रास नहीं आ रहा.

मोदी की पार्टी में स्थिति का अंदाजा एक घटना से लगाया जा सकता है. घटना पुरानी है. 2002 के विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी थी. हरेन पंड्या उस समय जीवित थे. मोदी उनसे नाराज थे. पार्टी उन्हें विधानसभा का टिकट देना चाहती थी. मोदी तैयार नहीं हुए. लालकृष्ण आडवाणी, पार्टी के प्रभारी महासचिव अरुण जेटली, पार्टी अध्यक्ष वेंकैया नायडू और संघ के मदनदास नेवी के साथ बैठक में मोदी को बुलाया गया. आडवाणी ने कहा कि सब चाहते हैं कि हरेन पंड्या को टिकट दिया जाए. मोदी का जवाब था आप लोग वरिष्ठ हैं, जो फैसला करें, सब मानूंगा. लेकिन पंड्या को टिकट देना है तो किसी और के नेतृत्व में चुनाव लड़वाने की व्यवस्था कर लें. हरेन पंड्या को टिकट नहीं मिला.

केशुभाई पटेल से लेकर कांशीराम राणा, सुरेश मेहता और गोरधन झोड़फिया तक सबकी यही दिक्कत है. मोदी के खिलाफ कहीं सुनवाई नहीं है. भाजपा असंतुष्टों में पार्टी को सबसे ज्यादा खतरा केशुभाई पटेल से है. इसलिए उन्हें मनाने के प्रदेश प्रभारी अरुण जेटली के प्रयास में मोदी का भी सहयोग है. उनके बेटे को टिकट देने और फिर मंत्री बनाने का आश्वासन देकर केशुभाई को लगभग मना लिया गया है. केशुभाई का जाना भाजपा के लिए बड़ा झटका हो सकता था.

भाजपा और संघ परिवार गुजरात में सत्ता खोना नहीं चाहते. इसलिए वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो मोदी को नागवार गुजरे. इस चुनाव में जीत हासिल करने के अलावा भी नरेन्द्र मोदी का एजेंडा है. उनकी कोशिश होगी कि लोग 2002 के गुजरात दंगों को भूल जाएं. मोदी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी स्वीकार्यता बनाना चाहते हैं. गुजरात की जीत भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति और लोकसभा चुनाव की तैयारियों को बल प्रदान करेगी.

गुजरात में हार भाजपा को राज्य में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर कई साल पीछे धकेल देगी. कांग्रेस गुजरात में जीती तो उसका धर्मनिरपेक्ष मोर्चा मजबूत होगा ही, लोकसभा चुनाव जल्दी होने की संभावना भी बढ़ जाएगी. गुजरात की हार कांग्रेस से वामपंथी दलों के मोहभंग और तीसरे मोर्चे की मजबूती का रास्ता प्रशस्त करेगी.