Friday, January 4, 2008

संगठन क्यों ताक पर...

राहुल गांधी को लोग देखने-सुनने आते हैं पर कांग्रेस को वोट नहीं देते. दरअसल, जो उन्हें सुनने आते हैं, वे जानना चाहते हैं कि राहुल गांधी आखिर किसके लिए राजनीति में हैं या फिर उन्हें किन मूल्यों-सिद्धांतों के लिए जाना जाए...


कांग्रेस में पिछले डेढ़ दशकों से संगठन के विभिन्न पदों के लिए प्रतिस्पर्धा न होने के कारण संगठन खोखला हो गया है. संगठन में चले नामांकन राज के कारण नए कार्यकर्ता नहीं बन रहे. यह निष्कर्ष है भविष्य की चुनौतियों के लिए बनी पार्टी की हाईपावर कमेटी का.


जो बात कांग्रेस के आम कार्यकर्ता और समर्थक बरसों से नजर आ रही थी, उसे जानने के लिए पार्टी को इतनी भारी-भरकम कमेटी बनानी पड़ी. कांग्रेस पार्टी का हाल भी कुछ-कुछ हमारी पंचवर्षीय योजनाओं की तरह है. जहां सबको पता रहता है कि क्या करना चाहिए पर करने वाला कोई नहीं होता. सवाल है कि अब जबकि रोग का निदान हो गया है तो क्या इसके इलाज की दिशा में कोई कदम उठाया जाएगा? इस सवाल के जवाब पर कांग्रेस का भविष्य निर्भर है.


बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात एक के बाद एक कांग्रेस के लिए किसी बड़े झटके की तरह आए. इनमें से पंजाब, उत्तराखंड और हिमाचल में चुनाव से पहले कांग्रेस की सरकार थी. 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद से देश में 18 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं. इनमें से असम, हरियाणा, पुदुचेरी और मणिपुर में ही कांग्रेस अपने दम पर सरकार बना पाई.


महाराष्ट्र में वह शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस से पिछड़कर दूसरे नंबर पर आ गई. तमिलनाडु में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के घटक दलों द्रमुक और उसकी सहयोगी पार्टियों की सरकार बनी. कांग्रेस इन चुनावों में या तो सत्ता से बाहर हो गई या फिर अपने विरोधी को सत्ता से हटाने में नाकाम रही.


अगर मान लें कि लोकसभा चुनाव समय पर होंगे तो उससे पहले नौ राज्यों त्रिपुरा, मिजोरम, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने हैं. मतदाता अब लोकसभा और विधानसभा के मुताबिक दोहरा मतदान नहीं करता. वह अब लोकसभा में भी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों में फर्क नहीं करता. इसीलिए लोकसभा चुनाव अब राज्यों के चुनावों का एग्रीगेट हो गया है. 2004 में इंडिया शाइनिंग के अलावा भाजपा की हार का यह भी एक प्रमुख कारण था.


लोकसभा चुनाव में जीत के बाद कांग्रेस को लगा कि उसके पुराने दिन लौटने लगे हैं. पर विधानसभा चुनावों में हार के सिलसिले के बाद राहुल गांधी को पार्टी में जिम्मेदारी देने की मांग उठने लगी. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने राहुल गांधी को चुनाव अभियान में उतार कर जुआ खेला पर दांव सही नहीं पड़ा. राहुल गांधी का करिश्मा वोट में नहीं बदल सका. क्यों..?


कांग्रेस में इस सवाल पर चर्चा करने की हिम्मत या तो किसी में नहीं है या फिर कोई इसकी जरूरत नहीं समझता. राहुल गांधी को लोग देखने-सुनने के लिए आते हैं पर कांग्रेस को वोट नहीं देते. दरअसल, जो उन्हें सुनने आते हैं, वे जानना चाहते हैं कि राहुल गांधी आखिर किसके लिए राजनीति में हैं या फिर उन्हें किन मूल्यों-सिद्धांतों के लिए जाना जाए.


करीब पौने चार साल के अपने संसदीय कार्यकाल में राहुल गांधी ने संसद में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिससे राजनीतिक स्तर पर उनकी पहचान बने. ऐसी परिस्थिति में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती नेता की पहचान नीति से कराने की है. संगठन को दुरुस्त करना दूसरी चुनौती है.


केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के चार साल पूरे होने वाले हैं. पर सरकार की उपलब्धियों को जनता तक ले जाने वाला संगठन कहां है. कांग्रेस की बीमारी की पहचान के लिए बनी कमेटी में राहुल गांधी भी हैं. उन्हें समझ में आ गया होगा कि नामांकन की राजनीतिक संस्कृति से पार्टी में अनुशासन भले नजर आए पर उसके पैर के नीचे से जमीन खिसकती जाती है.


नेता के करिश्मे से जनता उसे सुनने तो आ सकती है, वोट नहीं देती. वोट देने के लिए तैयार हो भी जाए तो उसे मतदान केंद्र तक ले जाने वाले कार्यकर्ताओं की फौज की जरूरत होती है. दरबारी संस्कृति वाले लोग ऐसा नहीं होने देंगे. कांग्रेस और उसके नेतृत्व को अब एक कदम और आगे जाना होगा. निदान के आधार पर रोग के इलाज के लिए. पार्टी अगर निदान जानकर रुक गई तो उसके लिए आगे और बड़े खतरे हैं.


संसदीय जनतंत्र में नेतृत्व का करिश्मा बनता है वोट दिलाने की ताकत से. वोट घटने के साथ ही करिश्मे पर भी सवाल उठने लगते हैं. राहुल गांधी हों या सोनिया गांधी, दोनों को यह भी सोचना पड़ेगा कि उनके सलाहकार कहीं उनकी अप्रसन्नता के भय से तो ऐसी सलाह नहीं दे रहे.


तुलसीदास जी कह गए हैं कि- सचिव वैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राजधर्म तन तीनि कर होई बेगिहीं नास.


नेता को बनाने और बिगाड़ने में उसके सलाहकारों की भूमिका बहुत अहम होती है. लोकसभा चुनाव में अभी करीब सोलह महीने का समय है. कांग्रेस के लिए अब भी समय है. लेकिन उसी हालत में अगर पार्टी और नेतृत्व दोनों ईमानदारी से आत्ममंथन करे.

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