Tuesday, January 8, 2008

क्रिकेट को हराकर क्या जीते...

विश्व चैंपियन ऑस्ट्रेलिया. क्रिकेट खेलने वाले सारे देशों के खिलाड़ी आतंकित रहते हैं. ऑस्ट्रेलिया के साथ मैच बराबरी पर छूट जाए तो विरोधी टीम उसे अपनी जीत मानती है.

एक दशक से ज्यादा हो गया, ऑस्ट्रेलिया के वर्चस्व को कोई टीम तोड़ नहीं पा रही. भारतीय टीम एकमात्र ऐसी टीम है जो यदा-कदा इस वर्चस्व को चुनौती देती रहती है.

एक और टीम थी जिसका दबदबा ऑस्ट्रेलिया से भी ज्यादा था. सत्तर और अस्सी के दशक में क्लाइव लायड की टीम. दोनों धुआंदार और आक्रामक ढंग से खेलने वाले. दोनों अपने विरोधियों के साथ कोई मुरव्वत नहीं दिखाते. पर एक फर्क है कि वेस्टइंडीज की टीम से विरोधी डरते थे तो सम्मान भी करते थे. ऑस्ट्रेलिया की टीम को वह सम्मान कभी नहीं मिला.

सवाल है कि आखिर इस विश्व विजेता ऑस्ट्रेलियाई टीम को यह सम्मान क्यों नहीं मिलता? इस सवाल का जवाब सिडनी में भारत के साथ हुए दूसरे टेस्ट मैच के दौरान मिला.

विजेता नायक भी होता है और खलनायक भी. विजय दर्प के साथ विनम्रता रखने वाला विजेता नायक बनता है. इस सिद्धांत में ऑस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम के खिलाड़ी यकीन नहीं रखते.

उन्हें सिर्फ साध्य से मतलब है. साधन की पवित्रता में उनका कोई यकीन नहीं है. वह किसी भी तरह और हर कीमत पर जीतना चाहते हैं. जीत ईमानदारी से मिले या बेईमानी से, धौंस से मिले या प्रतिभा से, अपने खेल से मिले या विरोधी टीम का खेल बिगाड़ने से, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.

विरोधी टीम के खिलाड़ियों के खिलाफ वे किस हद तक जा सकते हैं, इसके दो बड़े उदाहरण हैं- मुथैया मुरलीधरण और अब हरभजन सिंह.

हरभजन के खिलाफ नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप ऑस्ट्रेलियाई टीम के खेल की रणनीति का हिस्सा है. मैच रेफरी माइक प्रॉक्टर का हरभजन को दोषी ठहराने का फैसला न्याय के सिद्धांत का उपहास करने वाला है.

हरभजन ने एंड्रयू साइमंड्स को कुछ कहा, यह मैदान पर मौजूद अंपायरों ने नहीं सुना. चैनल नाइन और ईएसपीएन-स्टार स्पोर्ट्स के कैमरों ने न तो देखा, न ही माइक ने पकड़ा. उनके साथ बल्लेबाजी कर रहे सचिन तेंदुलकर ने भी नहीं सुना. लेकिन मैथ्यू हेडन और माइकल क्लार्क ने सुन लिया.

मैच रेफरी माइक प्रॉक्टर ने जांच की जरूरत नहीं समझी. सचिन तेंदुलकर और हरभजन के बयान को गैर करने लायक नहीं माना और आरोप लगाने वाले के बयान को ही सबूत मानकर फैसला सुना दिया.

सचिन तेंदुलकर क्रिकेट जगत में ऐसे खिलाड़ी हैं जिनकी निष्ठा, ईमानदारी और साफगोई की कसम खाई जा सकती है. माइक प्रॉक्टर की नजर में उनकी बात की कोई अहमियत नहीं है.

उन्होंने उन एंड्रयू साइमंड्स की बात पर भरोसा किया जो तीन बार आउट होने पर भी क्रीज पर जमे रहे. उन माइकल क्लार्क को ज्यादा विश्वसनीय माना जो जमीन से लिए गए कैच को सही मानते हैं.

पूरे मैच में अंपायरिंग के फैसले भारतीय टीम के खिलाफ गए. भारत जो मैच अगर जीतता नहीं तो बराबर तो कर ही सकता था, हार गया. ये सब बातें एक बुरे सपने की तरह भूलकर भारतीय टीम तीसरे टेस्ट मैच में उतर सकती थी. पर हरभजन पर नस्लभेदी टिप्पणी का आरोप. यह केवल हरभजन नहीं, भारतीय टीम और भारत की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ है.

नस्लभेद पर भारत के रुख के बारे में पूरी दुनिया जानती है. उसे किसी माइक प्रॉक्टर, रिकी पोंटिंग या एंड्रयू साइमंड्स के सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं है.

आज तक भारत के किसी खिलाड़ी पर इस तरह का आरोप नहीं लगा है. भारत के खिलाड़ी इसका शिकार जरूर हुए हैं.

माइक प्रॉक्टर का फैसला अंतरराषट्रीय क्रिकेट परिषद की खेल को निष्पक्ष ढंग से चलाने की व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है. क्या खिलाड़ियों के रंग के हिसाब से सजा तय होगी.

आखिर किस आधार पर माइक प्रॉक्टर इस नतीजे पर पहुंचे कि एंड्रयू साइमंड्स सच बोल रहे हैं और हरभजन झूठ. माइकल क्लार्क सचिन तेंदुलकर से ज्यादा विश्वसनीय कैसे हो गए?

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) थोड़ा देर से ही सही, जागा है. बीसीसीआई ने कहा है कि माइक प्रॉक्टर के फैसले के खिलाफ हरभजन की अपील पर फैसला आने तक भारतीय टीम का ऑस्ट्रेलिया दौर मुल्तवी रहेगा.

कहा जा रहा है कि टीम का दौर रद्द हुआ तो बीसीसीआई को भारी हर्जाना भरना पड़ेंगा. अब बीसीसीआई को तय करना है कि क्या वह पैसे के लिए टीम और देश के स्वाभिमान से समझौता करने को तैयार है?

आईसीसी को यह स्वीकार करना पड़ेगा कि दुनिया और खास तौर से क्रिकेट की दुनिया में गोरों के वर्चस्व के दिन लद गए हैं. आईसीसी के एक मैच रेफरी माइक डेनेस को जगमोहन डालमिया बता चुके हैं.

आईसीसी अगर क्रिकेट और खेल की भावना को बचाना चाहती है तो उसे तीन काम फौरन करना चाहिए. एक हरभजन के खिलाफ माइक प्रॉक्टर के फैसले को रद्द करे, दूसरे सिडनी टेस्ट को रद्द करे और तीसरे स्टीव बकनर और मार्क बेनसन को भारतीय टीम के खिलाफ किसी मैच में अंपायरिंग न करने दे.

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